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प्रबुद्ध जीवन हेतु बोध
श्री गुरु और SRM टीम द्वारा
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प्रबुद्ध जीवन हेतु बोध

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साधक के विचार से और मार्ग पर चलते हुए जो प्रश्न उठते हैं, उनका श्री गुरु ने स्पष्ट और संक्षेप में उत्तर दिया है। जहाँ समर्पण की बाती होती है वहीं समाधान का दीया जलता है। जहाँ समाधान की ज्योत जलती है वहाँ शिष्य की पात्रता प्रगाढ़ होती है। ऐसे में हर प्रश्न मार्ग का अगला कदम बनता है। पढ़ें, विचार करें और आचरण में लाएँ।
प्रश्न: संयम का पालन करते हुए कभी-कभी असंयम की वृत्ति उछलती है। ऐसे में हमें मन की इच्छा को दबाना चाहिए या फिर वृत्ति का पोषण कर के मन को शांत करना चाहिए? कृपया समाधान दें।
समाधान: संयम के समय में वृत्ति का उछलना स्वाभाविक है। ऐसे समय में उठी हुई वृत्ति का पोषण करने से मन कुछ समय के लिए शांत हो सकता है, परंतु इच्छा-पूर्ति की उसकी वृत्ति और अधिक मज़बूत होती है। संयम के समय में जब वृत्ति उछलती है तभी गुरु-बोध और गुरु-भक्ति का आधार लेकर मन को संयम के मार्ग पर अविचल रखना है। प्रत्येक वृत्ति मात्र कुछ ही समय के लिए उछल सकती है और यदि वह समय पसार हो जाए तो वृत्ति का विषय मंद हो जाता है, और मन को भी अपनी जीत का एहसास होता है जो हमारे आत्मविश्वास को सुदृढ़ करता है। उदाहरण के लिए: हो सकता है कि साधक ने मिठाई-त्याग का नियम लिया हो, परंतु उसमें मिठाई को खाने की वृत्ति उठी हो। यह सामान्य है कि जब कोई भी वृत्ति उछलती है तब मन अशांत हो जाता है। परंतु इस समय में यदि आप मिठाई खा लेते हैं तो स्वयं का स्वयं पर से विश्वास उठ जाएगा और मन भी और मज़बूत बनेगा तुम्हें अगली बार तुम्हारे संयम से गुमराह करने के लिए। परंतु ऐसे समय में यदि आप मिठाई नहीं खाते और उस मन को गुरु-बोध अथवा गुरु-भक्ति में लगाते हैं तो वृत्ति का उदय-काल समाप्त होते ही मन में एक अलग ही आत्म-विश्वास उभरता है जो मन को सही मार्ग पर चलने की योग्यता देता है।
प्रश्न: अवलोकन करने से समझ में आता है कि हम में अभी अनेक कमियाँ हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता है। जब कोई हमारे विपरीत बोलता है तो प्रथम प्रतिक्रिया (reaction) उसे समझाने की होती है। उस समय हम स्वीकार कर के शांत क्यों नहीं रह पाते? हमें तत्-क्षण उठती प्रतिक्रिया को कैसे कम करना चाहिए?
समाधान: आंतरिक शुद्धि का संपूर्ण मार्ग समय के साथ-साथ उजागर होता है। सबसे पहले कुछ वर्ष लगते हैं ज्ञान की परिपक्वता होने में जिसके परिणाम स्वरूप साधक यह निर्णय तक पहुँचता है कि भूल हमारी ही है। मुझे खुशी है आप इस स्थिति तक पहुँचे हैं। अब उससे आगे की यात्रा करनी है। कोई जब कुछ विपरीत बोलता है, तो सबसे पहले इन चार प्रश्नों पर विचार करें कि –
स्मरण रहे, यह चार प्रश्न स्वयं से करने की साधक को आदत डालनी होगी। जब अचानक ऐसी परिस्थिति आ जाए तब आप स्वयं को इस प्रकार से सोचने के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। परंतु जब आप अवलोकन कर रहे हों तब इन चार विचारों को अपने भीतर डालें। इसका प्रभाव परिस्थिति के आने पर अवश्य पड़ता है।
प्रश्न: आप समझाते हैं कि ईश्वर की इस लीला में सभी कुछ ईश्वर-इच्छा से होता है। तो ईश्वर की इच्छा हमारी इच्छा से इतनी विपरीत क्यों होती है?
समाधान: जैसे बड़े गोले (circle) में छोटा गोला समा जाता है परंतु छोटे में बड़े को डालने की कोशिश ही व्यर्थ है वैसे ही ईश्वर वह बड़ा-गोला है जिसमें हम छोटे-छोटे गोलों को समाविष्ट होना है। ब्रह्माण्डीय चेतना (Universal Consciousness) में व्यक्तिगत चेतना (Individual Consciousness) को समाना है। विपरीत असंभव है। जब जीवन में कुछ भी अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं होता तो तत्क्षण अपनी इच्छा की व्यर्थता को स्वीकार करके ईश्वरीय-इच्छा में ही सहमत होना होता है। यह सहमति इसलिए नहीं होनी चाहिए कि कुछ समय बाद ईश्वर हमारी इच्छा पूरी करेंगें – यह तो कामना का ही नया रूप हो गया ! यह अनिवार्य है कि साधक को अपनी इच्छा का ही त्याग करना है। हाँ, यदि वह इच्छा परमार्थ-पथ की है तो उसे प्रार्थना के रूप में, बिना किसी अविश्वास के, करते रहना चाहिए। स्मरण रहे, ईश्वर की इच्छा हम से विपरीत नहीं है परंतु हमारी विपरीत मान्यता, अनुचित इच्छाओं और सांसारिक कामनाओं में भागते मन को सही दिशा देने का संकेत होती हैं। ईश्वरीय अस्तित्व के प्रति अथाह प्रेम से भरा हृदय ही ईश्वरीय-योजना में अपना हित देख पाता है। साधक को यह भी स्मरण में रखना चाहिए कि ईश्वरीय-सत्ता से संघर्ष कर के वह कभी भी जीत नहीं सकता।
प्रश्न: श्री गुरु, कभी-कभी हम ऐसे उन्नत मनो भावों में होते हैं कि स्वयं से एक साथ इतने सारे शुभ नियम ले लेते हैं – जैसे अमृत वेला में उठना, नियमित सत्संग देखना, स्वराज क्रिया करना इत्यादि। लेकिन कुछ समय में ही यह भाव चले जाते हैं और हम इन स्व-स्थापित नियमों में अटल नहीं रह पाते। ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूट जाता है। हमें क्या करना चाहिए?
समाधान: स्वच्छंद से लिए हुए नियमों का यही परिणाम होता है। न तो नियम पूरे होते हैं और न ही कोई आत्मिक वैभव की प्राप्ति होती है। नियमों को लेने से पहले सदा कुछ बातों की सावधानी रखनी चाहिए। जैसे –
इस प्रकार करने से नियम का उत्साह भी बनता है और भूल का पश्चाताप भी होता है। जिसके परिणाम स्वरूप स्वयं का आत्म-विश्वास बना रहता है।
प्रश्न: हमारे कुछ प्रश्नों का समाधान आप ई-मेल से देते हैं परन्तु कुछ प्रश्नों का समाधान नहीं भी देते। ऐसे समय में समाधान हमें स्वयं को लेना पड़ता है। ऐसे में हम यह कैसे समझें कि हमने सही निर्णय लिया है कि नहीं?
समाधान: सद्गुरु आध्यात्मिक पथ बताने के लिए मार्गदर्शक होते हैं, व्यक्तिगत सलाहकार (advisor) नहीं। सलाहकार मनुष्य को सदा अपने पर आश्रित रखते हैं परंतु सद्गुरु साधक को स्व-आश्रित बनाने के आयोजन करते हैं। सत्संग का श्रवण और चिंतन करके साधक जीव को उस ज्ञान की अपने जीवन में होने वाली उपयोगिता के मायनों पर विचार करना चाहिए। इससे साधक का ‘विवेक’ उजागर होता है जो उसे किसी भी स्थिति में सही निर्णय लेने के लिए तैयार करता है। कितनी ही बार साधक गलत निर्णय भी लेता है परंतु विवेक जागृत होने से वह उस गलती से शीघ्र ही वापिस आता है। स्वराज क्रिया में कुछ वर्ष बिताने के बाद साधक का ‘अनाहत केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप अनुचित निर्णय लेने के पश्चात उसके हृदय में बोझ व पीड़ा की संवेदनाएँ सक्रिय हो जाती हैं – इससे वह समझ पाता है कि उसका निर्णय या चुनाव अनुचित है। इस प्रकार उन्नत कक्षा में पहुँचा हुआ साधक भी कभी-कभी अनुचित निर्णय लेता है परंतु आंतरिक-संवेदना के आधार पर शीघ्र ही सुधार कर लेता है।
प्रश्न: आप कहते हैं कि आत्मा का स्वभाव अनंत-आनंद से भरा है और हमें इसी स्वभाव को उजागर करना है। परंतु वर्तमान समय में जहाँ इतने लोगों की मृत्यु हो रही हैं, बच्चे अनाथ हो रहे हैं, आजीविका के साधन बंद हो गए हैं और जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है, तो हम आनंद में कैसे रहें?
समाधान: अवश्य ही आत्मा का स्वभाव अनंत-आनंद से भरा है परंतु स्वभाव की इस गहराई तक जाने के लिए साधना का सुदृढ़ अवलंबन चाहिए। इतिहास प्रमाण है कि वर्तमान जैसे हालात हर शताब्दी में एक बार अवश्य आते हैं जो लगभग पाँच वर्षों तक जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करते हैं। अवश्य समझें कि यह समय पहली बार नहीं आया। यह राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक संकट तो हर काल में आते हैं। आवश्यकता है कि ऐसे समय में साधक जीव अपना वैराग्य दृढ़ करे, जीवन की क्षणिकता को समझे, मनुष्य जीवन के पारमार्थिक मूल्य की पहचान करे और किसी सद्गुरु की शरणागति में इस परिभ्रमण से आज़ाद होने का मार्ग खोजे। जब साधक जीव की इतनी भूमिका तैयार होती है उसके पश्चात ही साधना के आधार पर वह स्वभाव के अनंत-आनंद का आस्वाद ले पाता है।
प्रश्न: आप कहते हैं कि सत्संग और ध्यान की मैत्री से मार्ग में आगे बढ़ा जाता है। सत्संग सुनने से विचारों को नयी दिशा मिलती है और उलझनों के समाधान होते हैं परंतु ध्यान के समय में विचारों का प्रवाह अनेक-गुना बढ़ जाता है। ऐसे में हम निर्विचार कैसे हो सकते हैं?
समाधान: सत्संग में सुनी हुई बातों का प्रयोग जब जीवन के स्तर पर होता हैतो जीवन में एक ऐसा सामंजस्य (harmony) बनता है जो उच्च ऊर्जा-क्षेत्र से समरस होता (coherent) है। इसी ऊर्जा-क्षेत्र में हम विचारों की सत्ता से ऊपर उठते हैं। विचारों की सत्ता से ऊपर उठना तीन स्तरों पर होता है – प्रथम, सांसारिक विचारों का रूपांतरण होता है पारमार्थिक विचारों में। दूसरा, पारमार्थिक विचार (सद्गुरु मुद्रा आदि) में वेदन का उठना, रोमांच का उठना। और तीसरा, वेदन का समय बढ़ते ही निर्विचार में प्रवेश कर जाना। इस स्थिति तक पहुँचने में समय लगता है। यदि साधक अपने सद्गुरु के प्रति संपूर्ण प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता के भावों के साथ मार्ग पर आरूढ़ होता है तो अधिक-से-अधिक छः महीनों में निर्विचार की स्थिति तक पहुँच सकता है। ऐसा सभी ज्ञानियों का एक-मत है।
प्रश्न: जब किसी व्यक्ति का वस्त्र-परिवर्तन (मृत्यु) होता है तब उसके घर पर अलग-अलग प्रकार के पाठ, जप, पूजा, दान आदि का आयोजन होता है। क्या इन सभी क्रिया-काण्डों से मृत व्यक्ति को भी कुछ लाभ होता है?
समाधान: इसमें अनेक प्रकार की धारणाएँ हैं। नास्तिक मतों के अनुसार जीव का पुनर्जन्म कुछ ही पलों में हो जाता है और उसके पूर्वजन्म के सभी संबंधों पर एक पर्दा गिर जाता है। परंतु आस्तिक मत में जीव अपनी रूहानी स्थिति में मृत्यु से लेकर 49 दिनों तक रह सकने का विधान शास्त्रों में पढ़ा जाता है। अध्यात्म में हम ऐसा मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात जीव तब तक के लिए अवश्य ही रूहानी-जगत में रहता है जब तक उसके अगले जन्म का गर्भ तैयार नहीं होता। वर्तमान काल व क्षेत्र की अपेक्षा से यह समय 3 सेकेंड से लेकर 21 दिनों तक का हो सकता है। इस समय के दरमियान जीव अपने पूर्व-संबंधों से संयुक्त (connected) होता है। ऐसे समय में पाठ-जप-पूजा-दान आदि के आयोजन से जो शुभ कर्म बँधते हैं उसमें वह जीव भी भागीदार बनता है और शुभ कर्मों को करने से जो शांति प्रकट होती है उसका अनुभव उस आत्मा को भी मिलता है। परंतु स्मरण रहे कि यह सभी शुभ क्रियाएँ जब उस व्यक्ति के स्मरण पूर्वक करी जाएँगीं तभी उसके लाभ का कारण बनती है, अन्यथा नहीं।
इन प्रश्नों के समाधान पढ़ते हुए यह स्वाभाविक है कि साधक के मन में कुछ नए प्रश्नों का जन्म हो। ऐसे में हम आपको अपने प्रश्न यहाँ लिखने के लिए आमंत्रित करते हैं। आपके परमार्थ संबंधित प्रश्नों का समाधान श्री गुरु से प्राप्त हो सकता है। समाधान प्रकाश के आगामी संकलन में कुछ प्रश्नों के समाधान प्रकाशित किए जाएँगें।
Bliss of Wisdom is a blog for seekers who are in search of their true self. It is published by Shrimad Rajchandra Mission Delhi – a spiritual revolutionary movement founded by Sri Guru. She is a spiritual Master who has transformed innumerable lives through her logical explanations and effective meditation techniques. To know more, visit www.srmdelhi.org.
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